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रेणी के chipko andolan को sunderlal bahuguna ने कैसे वैश्विक आंदोलन बना दिया : World environment day Facts

Admin by Admin
April 15, 2022
in Uttarakhand
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व्हाट आ क्विनसिएन्स, जून के महीने में सिर्फ शादियां ही नहीं होती बल्कि  World Environment Day भी आता है , हाँ वही एनवायरनमेंट जिसके बिना हम चाँद पर जा तो सकते हैं लेकिन रह नहीं सकते , जिसकी

वजह से दुनिया के हर एक जीव एक दूसरे से लाइफ चैन से जुड़े हैं ,  लेकिन , लेकिन क्या वजह हो गयी, की हमको इस लाइफ चैन को बनाये रखने के लिए भी आज एक दिन की जरूरत आ पड़ी है।  

हाँ जनता हूँ हम बहुत स्मार्ट हैं सब जानते हैं,  इतने स्मार्ट हैं की हमने अपनी स्मार्टनेस के चककर में दुनिया के वन का एक तिहाई हिस्सा खो दिया है जो की लगभग संयुक्त राज्य अमेरिका के आकार का दोगुना है। यही नहीं पृथ्वी का सुरक्षाकवच कहलाने वाली ओज़ेन लेयर 0.8 परसेंट की दर से हर साल क्षय हो रही है 

खैर हमारी इतनी स्मार्टनेस के बावजूद भी कुछ ऐसे पर्यावरण प्रेमी हुए  जिन्होंने अपना जीवन तक इस जीवन तंत्र को बचने में लगा दिया , आज हम बात करने वाले है हिमालय की गोद में बसे उत्तरखंड के उस Chipko movement/ chipko andolan के बारे में जो आने वाली पीढियों के लिए  एक सबक बन गया। 

दिन 26 मार्च साल 1974 , उत्तराखंड के चमोली जिले के एक गांव  रेणी की लगभग 27 महिलाएं , गौरा देवी के नेत्रृत्व में स्वतंत्र भारत का पहला और अनोखा पर्यावरण आंदोलन “चिपको-आंदोलन” का बिगुल फूंक देती हैं । वे पेड़ों से चिपक कर कहती , अगर पेड़ कटेंगे तो हम भी साथ कटेंगे।  

लेकिन आखिर वे ऐसा क्यों कहती हैं Chipko andolan क्यों करती हैं ? आखिर ये चिपको आंदोलन है क्या ? 

साल 1974 , वन विभाग द्वारा एक आदेश जारी किया जाता है जिसमे की रेणी क्षेत्र के जंगल से, अंगु के लगभग 2500 पेड़ों को  काटने की अनुमति खेल-कूद का सामान बनाने वाली इलाहाबाद की साइमंड कम्पनी को दिया गया है।  जैसे ही इस बात की  खबर गांव वालों को मिलती है तो वे चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में 14 फरवरी, 1974 को एक सभा आयोजित कर के  गांव के अन्य लोगो को चेताया गया कि यदि पेड़ गिराये गये, तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड जायेगा। ये पेड़ न सिर्फ चारे, जलावन और जड़ी-बूटियों की जरूरते पूरी करते है, बल्कि मिट्टी  का क्षरण भी रोकते है। 

बाद में 15 मार्च को गांव वालों ने जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला। उसके बाद ऐसा ही जुलूस 24 मार्च को आसपास के छात्रों  द्वारा भी निकला गया।  धीरे धीरे आंदोलन जोर पकड़ने लगा ही था की इसी बीच तभी सरकार ने घोषणा की कि चमोली में सेना के लिए जिन लोगों के खेतों को अधिग्रहण किया गया था, वे अपना मुआवजा लेने पहुचें। गांव के पुरूष मुआवजा लेने चमोली चले गए। वहीं दूसरी ओर सरकार ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए जिला मुख्यालय गोपेश्वर बुला लिया था। 

इस मौके का लाभ उठाते हुए ठेकेदार और वन अधिकारी जंगल में आ घुसे। इस वक्त गांव में सिर्फ महिलायें ही थीं। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और बिना अपनी जान की परवाह किये पेड़ों से जा चिपकी।  उनके साहस और अपने जंगलों के प्रति लगाव ने एक वैश्विक आंदोलन को जन्म दे दिया।  

इस घटना की खबर लगते ही आस पास के गावों के लोग भी इस आंदोलन में जुटने लगे और यह आंदोलन रेणी गांव का आंदोलन न रह कर ab एक जान आंदोलन का रूप ले चूका था। क्यूंकि उस वक्त वनों का शोषण करने वाली दोहन की ठेकेदारी प्रथा अपने चरम पर थी यह प्रथा न सिर्फ जंगलों का andhadhun दोहन कर रही थी बल्कि यहां काम करने वाले श्रमिकों को मनमाना श्रम दे कर उनका भी शोषण कर ही थी।  वनों के कट जाने से न सिर्फ ईंधन के रूप में प्रयोग होने वाली लकड़ी बल्कि रोज मरा के कामों में प्रयोग किये जाने वाली इमरती लड़की के लिए भी स्थानीय लोगों को वन विभाग का मुँह ताकना पढ रहा था।  साथ ही भूमिगत जल , भूमिक्षरण के चलते उपजाव जमीनें भी बर्बाद हो रही थीं।  

आंदोलन की गति को देखते हुए,  दिल्ली विश्वविद्यालय के वनस्पति-विज्ञानी वीरेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में 9 मई, 1974 को तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने चिपको आंदोलन की मांगों पर विचार के लिए एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा की।  जिसके बाद समिति ने चिपको आंदोलनकारियों की मांगों को जायज पाया और  अक्टूबर, 1976 में उसने यह सिफारिश कि 1,200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में व्यावसायिक वन-कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी जाए साथ ही इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण हिस्सों में वनरोपन का कार्य युद्धस्तर पर शुरू किया जाए।  

जिसे की उस वक्त की सरकार ने मान भी लिया और 13,371 हेक्टेयर की वन कटाई योजना वापस ले ली। 

चिपको कहीं मायनो में सफल रहा, इसी के कारण एक सशक्त राष्ट्रीय वन नीति बनाने की भूमिका रखी जा स्की । वास्तव में  इस आंदोलन की सफलता का मुख्य आधार गांधीवादी संघर्ष रहा।  गाँधीवादी सूंदर लाल बहुगुणा और चण्डीप्रसाद भट्ट ने इस आंदोलन को जान आंदोलन के रूप में लाने के लिए अनेक प्रयास किये।  

25 दिसम्बर साल 1978 को एक बार फिर मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग 2500 पेड़ों की कटाई रोकने के लिए हजारों महिलाओं ने चिपको आंदोलन शुरू किया जिसके समर्थन में  9 जनवरी, 1978 को सुंदरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा जिसके परिणामस्वरूप तत्कालीन सरकार ने इन स्थानों पर वनों की कटाई पर तत्काल रोक दी और हिमालय के वनों को संरक्षित वन घोषित करने के सवाल पर उन्हें बातचीत करने का न्योता दिया. इस संबंध में निर्णय होने तक गढ़वाल और कुमायूं मण्डलों में हरे पेड़ों की नीलामी और कटाई बंद करने की घोषणा कर दी गई। सुंदरलाल बहुगुणा  को चिपको आंदोलन का प्रणेता माना जाता है, आपको बता दूँ  21 May 2021 को 94 वर्ष की आयु में सुंदरलाल बहुगुणा का निधन हो गया वे कोरोना से संक्रमित पाए गए थे ।  आज 5 जून,  विश्व पर्यावरण दिवस पर उनके इस वैश्विक संघर्ष और उनके जीवन संघर्ष से जुड़े कुछ तथ्य हमे जरूर जानने चाहिए। 

सुंदरलाल बहुगुणा के बाद अगला chipko andolan प्रणेता कौन ? 

9 जनवरी, 1927 को टिहरी जिले के  मरोड़ा गांव जन्मे सुंदरलाल बहुगुणा मात्र १३ वर्ष की आयु में ही अमर शहीद श्रीदेव सुमन से प्रेरित होकर आजादी के संघर्ष में कूद पड़े थे।  उनका सम्पूर्ण जीवन गाँधीवादी विचारों के प्रेरित रहा तब चाहे पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदलन का संघर्ष हो , टिहरी बांध का आंदोलन हो या शराबबंदी आंदोलन हो, उनका हर एक संघर्ष सत्य और अहिंसा के मार्ग से निस्वार्थ और निर्भीक होकर गुजरा। 

वे हमेशा नदियों, वनों व प्रकृति से प्रेम करते थे , सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं थे,  उन्होंने हमेशा बड़े बांधों का विरोध किया और देश के विभिन्न हिस्सों में बड़े बांधों के खिलाफ हुए आंदोलनों में हिस्सा लिया या उन्हें प्रेरित किया। 1980 के दशक के मध्य में छत्तीसगढ़ के बस्तर के भोपालपटनम और गढ़चिरौली में प्रस्तावित दो बड़े बांधों को लेकर आदिवासियों के इस बड़े आंदोलन को 9 अप्रैल, 1984 को मानव बचाओ जंगल बचाओ आंदोलन के तहत हजारों आदिवासी के साथ सुंदरलाल बहुगुणा भी विशेष रूप से वहां उपस्थित रहे , कहते हैं उनकी उपस्थिति ने इस आंदोलन में जोश भर दिया था।

साल 1987 में बहुगुणा ने पद्म श्री को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था , क्यूंकि उनके विरोध के बावजूद टिहरी बांध परियोजना को रद्द करने से सरकार ने  इनकार कर दिया था।  बाद में साल 2009 में उन्हें पर्यावण संरक्षण के लिए  पद्मा विभूषण भी दिया गया था इसके अतिरिक्त उन्हें अनेकों सम्मान  से दुनिया भर में नवाजा गया।  लेकिन इन सब से परे उनके संघर्ष और योगदान को मानव जाती कभी भी नहीं भूला सकती।  हम हमेसा उनके कर्जदार रहेंगे।  

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