Facts About Choliya Dance Of Uttarakhand
जुडो, कराटे , कुंग फु और टायक्वोंडो जैसे मार्शल आर्ट्स के बारे में तो आपने सुना ही होगा , लेकिन क्या अपने कभी उत्तराखंड के पारम्परिक मार्शल आर्ट्स के बारे में सुना है।
अगर नहीं तो बने रहिये , क्यूंकि आज हम आपको बताने वाले हैं उत्तराखंड के मार्शल आर्ट्स से जुड़े अननोन फैक्ट्स के बारे में
वर्तमान उत्तराखंड, गढ़वाल और कुमाऊं दो रीजन से मिल कर बना है , कहा जाता है रंगीलो कुमाऊं मेरो, छबीलो गढ़वाल यानि की कहा जा सकता है तीज त्यौहार और उत्सवों से भरा कुमाऊं का रंग और शौर्य संघर्ष से भरा गढ़वाल की गाथा।
Chholiya Dance: Martial Arts of Uttarakhand
पौराणिक ग्रन्थों व इतिहास में केदारखण्ड व मानसखण्ड के रूप में इन क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है जहां बारी बारी से पौरव, कुशान, गुप्त, कत्यूरी, रायक, पाल, चन्द, परमार व पयाल राजवंश और उसके बाद गोरखा और अंग्रेज़ों ने शासन किया।
गढ़वाल और कुमाऊं पर विभिन्न राजवंशों और रियासतों के शासन का सीधा मतलब है अनेकों युद्ध और संघर्ष। किसी भी युद्ध में हार का मतलब मृत्यु होता है, ऐसे में इन क्षेत्रों में भी विभिन्न कुशल युद्ध कलाएं भी जन्म लेने लगी जिनमे से ही एक थी उत्तराखंड का मार्शल आर्ट्स कहा जाने वाला Chholiya dance।
इस युद्ध कला के मूल नाम के सम्बन्ध में हाल फिलहाल कोई प्रमाण नहीं मिलते लेकिन माना है की छोलिया नृत्य उस युद्ध कला का ही छद्म रूप है। छोलिया नृत्य या छलिया नृत्य की शुरुवात के बारे में मान्यता है की एक बार कुमाऊं के किसी राजा द्वारा जब अपने दरबार में अपने युद्ध अनुभवों को बताया गया तो रानी ने इच्छा जाहिर की वे इस युद्धकला को अपनी आँखों से देखना चाहती हैं जिसके बाद राजा ने अपने सैनिकों को युद्ध को छद्म रूप में दोबारा प्रदर्शित करने का आदेश दिया। जिसके बाद से यह एक परम्परा के रूप में विकसित होती गयी और राजाओं द्वारा अपनी शौर्य गाथा और शक्ति प्रदर्शन का प्रतिरूप बन गया। हालाँकि वर्तमान समय में यह एक नृत्य के रूप में रह गया है जो की कुमाऊं क्षेत्र में शादी विवाह में देखने को मिल जाता है।
अगर आप छलिया नृत्य की बैरिकों पर ध्यान दे तो आप समझ सकते हैं की उस वक्त की युद्ध कला या व्यूह रचना कैसी रही होगी।
छोलिया नृत्य छोलिया युद्ध कला
छोलिया नृत्य में कलाकारों की एक टोली में 15 से 25 कलाकार शामिल होते हैं जिनमे से नर्तक के एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में ढाल लिए होते हैं।
छोल्यार की पोशाक प्राचीन सैनिकों की भांति ही सर पर पगड़ी बंधे, एक सफ़ेद घेरेदार चोला जिसके साथ सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा और कपडे का रंगीन कमरबंद होता है, चोले को कुछ लाल – नील रंग के कपड़ों की पतियों द्वारा सजाया जाता है। छोल्यार की पोशाक से आप अंदाजा लगा सकते हैं की घेरेदार चोला ऊपरी शरीर इस लिए पहना जाता था तांकि किसी युद्ध के समय एक मात्र वस्त्र आसानी से और जल्दी पहना जा सके, जबकि चूड़ीदार पाजामा चलने किसी प्रकार का उलझाव न करे। ऐसी ही पोशाक मराठा , मुगलों व अन्य राजपूतों की भी हुआ करती थी।
छोल्यार अपने पैरों में भरी आवाज वाले घुंघरू भी पहनते हैं सम्भवत उस वक्त सैनिकों द्वारा दुश्मन सेना को भयभीत या चकित करने के लिए ऐसा किया जाता रहा है होगा।
छोलिया नर्तकों की एक टोली में वाद्य यंत्रों का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, ढोल – दमाऊ , तुरी, नागफनी और रणसिंह के अलावा मसकबीन, नौसुरिया मुरूली तथा ज्योंया का प्रयोग किया जाता है। अगर आपने छोलिया देखा होगा तो ढोली द्वारा विभिन प्रकार के ताल बजा कर नर्तकों को संकेत दिया जाता है की अगला स्टेप क्या होगा जिसके अनुसार नर्तक नृत्य करते हैं। इस तथ्य को अगर महाभारत या अन्य युद्धों से तुलना करें तो यह स्पष्ट है की उत्तरखंड की युद्ध कला में भी वाद्य यंत्रों का महत्वपूर्ण स्थान था। महाभारत में भी शंख , रणसिंह और तुरी , ढोल आदि का प्रयोग व्यूह रचना और महत्वपूर्ण संकेतों के रूप में किया जाता था।
छोलिया के वर्तमान स्वरूप की बात करें तो यह प्रमुख रूप से बिसू नृत्य ,सरांव, रण नृत्य ,सरंकार, वीरांगना, छोलिया बाजा, शौका शैली, पैटण बाजा के रूप में देखा जाता है। आज भी छोलिया नर्तकों की ऊर्जा और कुशलता को देख कर आप अनुमान लगा सकते हैं की पूर्व में सैनिकों द्वारा किस प्रकार का पराक्रम और शौर्य के साथ इस युद्ध कला को युद्ध क्षेत्र में फलीभूत किया होगा।
ऐसे अनेकों तथ्य है जिनके आधार पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की छोलिया मात्र एक नृत्य नहीं है बल्कि एक कुशल युद्ध कला है जिसे पहले हमारे पूर्वजों से आपने पराक्रम से उपजा और बाद में इन कलाकारों ने सवांरा। उत्तराखंड और सम्पूर्ण भारत का इतिहास रहा है की वे गीत संगीत और नृत्यों के जरिये अपनी गौरव गाथाएं अगली पीढ़ी तक पहुंचते रहे हैं जिनमे से एक छोलिया भी है।
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